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अपने लोगों के हितसंबंधों का मैं खुद प्रतिनिधि हूँ-डॉ.अंबेडकर

 


(संदीप कुमार) 8.10.1931 का दिन गोलमेज सम्मेलन के इतिहास का विशेष महत्त्व का दिन था। अल्पसंख्यकों के मसलों पर बातचीत के लिए महात्मा गांधी की अध्यक्षता में नियुक्त निजी समिति में आठ दिनों तक लगातार बातचीत के बाद भी अल्पसंख्यकों के मसले पर कोई निर्णय नहीं लिया जा सका था। पंजाब के हिंदू, मुसलमान और सिक्खों की मांगों के हल निकल न पाने के कारण इस समिति को यह सवाल हल करने में असफलता का सामना करना पड़ा जिसके बारे में सबने खेद व्यक्त किया। कँग्रेस की तरफ से महात्मा गांधी ने अस्पृश्यों के सवाल पर जो पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाया था उसका खुले तौर पर विरोध करने के अलावा इस वक्त डॉ.अंबेडकर के सामने कोई अन्य चारा ही नहीं था। लेकिन, केवल इसी बात को लेकर कि, डॉ.अंबेडकर ने महात्मा गांधी का विरोध किया, सभी हिंदू राष्ट्रीय पत्रकारों ने और काँग्रेस ने और तथाकथित देशभक्तों ने समाचार पत्रों के पाठकों और जवानों का मन कलुषित करने का घिनौना कार्य किया। उन लोगों का यह लगभग धर्म ही हो बैठा था कि वे अपने पाठकों का मन डॉ.अंबेडकर के खिलाफ कलुषित करते रहें। डॉ.अंबेडकर ने विरोध क्यों किया और उन्हें विरोध क्यों नहीं करना चाहिए, इस बात के बारे में ठंडे और निर्विकार दिमाग से सोचने की उदारता इन पत्रकारों तथा देशभक्त कहलाने वालों के पास नहीं थी! बस महात्मा गांधी की योजना है, तो फिर वह भले वह सुसंगत हो या विसंगत उसका विरोध करना तो जैसे प्रत्यक्ष भगवान का विरोध करने जैसा भयावह और पापमूलक है, ऐसी मानसिकता बनाई गई थी! अंग्रेज सरकार द्वारा भड़काए जाने के बगैर कोई ऐसा कर ही नहीं सकता है, वाली भ्रामक और गलत सोच को इन राष्ट्रीय और देशभक्त पत्रकारों ने पाल रखी है और अपनी इसी सोच का प्रसार वे हर रोज अपने पाठकों के बीच करते रहते हैं। महात्मा गांधी ने तो यह तुनतुना बजाना शुरू ही कर दिया था कि, “ डॉ.अंबेडकर अस्पृश्यों के सच्चे प्रतिनिधि या नेता नहीं हैं। उन्हें सरकार ने चुना है। अस्पृश्यादि सभी अल्पसंख्यक समाज के काँग्रेस और मैं ही सच्चे, लोकमान्य नेता प्रतिनिधि हैं। इसीलिए उनके इस कथन का झूठ स्पष्टता के साथ उघाड़ना जरूरी हो गया था।


मुसलमानों की तरफ से सर महंमद शफी ने गांधीजी के इस कथन का विरोध किया। डॉ.अंबेडकर को भी गांधीजी के कथन को निरस्त करना पड़ा। लेकिन कहते हैं ना कि गुपचुप चिकोटी काटने वाले का हाथ दिखाई नहीं देता, लेकिन चिल्लाने वाले का मुंह जरूर दिखाई देता है! कुछ ऐसा ही यहां भी हुआ है। महात्मा गांधी सत्पुरुष हैं, अस्पृश्योद्धारक हैं, इसलिए उनका कहा हर शब्द वेदतुल्य माना जाए। उन्होंने सच कहा या झूठ कहा, अच्छी-बुरी कोई भी नीति अपनाई, तो भी उसे स्वीकारना ही चाहिए इस प्रकार जो सोचते हैं, उन्हें डॉ.अंबेडकर का दिया भाषण कड़वा लगना स्वाभाविक है, इसमें आश्चर्य लगने जैसी कोई बात नहीं है। यहां के छोटे-बड़े सभी राष्ट्रीय अखबारों ने महात्मा गांधीजी के तार से भेजे गए भाषण प्रसिद्ध किए, लेकिन डॉ.अंबेडकर के भाषण को समाचार पत्र में जगह न देकर उनका सिर्फ जनमत को कलुषित करने वाला सारांश देकर अपनी बदले की आग को शांत कर लिया है। आठ तारीख को डॉ.अंबेडकर का जो भाषण प्रसिद्ध हुआ है, उसका सारांश आगे दिया जा रहा है।


"कल रात की असफल बातचीत के बाद समिति के सदस्यों ने अपनी कोशिशें असफल रहीं इस भावना के साथ एक-दूसरे से विदा ली थी। यह भी तय किया था कि आज उस बारे में बातचीत करते हुए विवाद पैदा करने वाले बिंदुओं के बारे में या मतभेदों को और गहरा करने वाली नीतियों पर कोई भाषण ना करें। इस प्रकार की बातें आपस में मोटे तौर पर तय की गई थीं। लेकिन गांधीजी का अभी का भाषण सुनकर और उनके द्वारा इस समझौते का भंग होता देखकर मुझे खेद हुआ। गांधीजी ने भाषण की शुरुआत से ही समिति के कार्य को सफलता क्यों नहीं मिलने के कारणों को अपने नजरिए से गिनाते समय कई विवादपूर्ण पहलु उत्पन्न किए। समिति का कार्य असफल क्यों रहा, इसके कई सबूत मेरे पास भी हैं, लेकिन आज यहां उनका जिक्र करना अप्रासंगिक होगा। इसीलिए, मैं ऐसा नहीं करना चाहता। 


समिति की बैठक क्या बेमियाद टाल दी जानी चाहिए. इस समयोचित विषय पर बोलने के बजाय समिति के सदस्य उन-उन समाज के प्रतिनिधि हैं अथवा नहीं हैं, का अप्रासंगिक विवादित मुद्दा बेवजह उठाकर गांधीजी ने अलग ही विषय को बढ़ावा दिया है। सरकार ने हमें यहां चुनकर भेजा है, इस बात से हम में से कोई भी इनकार नहीं कर सकता। लेकिन अगर मेरे ही बारे में बोलना हो तो गांधीजी को मैं चुनौतिपूर्ण तरीके से बताना चाहता हूं कि अपना प्रतिनिधि कौन हो यह चुनने का मौका अगर अस्पृश्य वर्ग को दिया जाए तो उनके द्वारा चुने गए सदस्यों में मेरा नाम भी होगा ही। इसलिए, गांधीजी द्वारा बेवजह उछाले गए मुद्दे का जवाब देते हुए आज मैं बस इतना ही बताना चाहूंगा कि मेरा चुनाव भी सरकार द्वारा अन्य लोगों की तरह ही किया गया है, लेकिन मैं अपने लोगों के हित का पूरा और सच्चा प्रतिनिधि हूं और अच्छा होगा कि वे इस सच्चाई को ना भूलें। 


गांधीजी बार-बार यही बात कहते रहे हैं कि काँग्रेस अस्पृश्यों के लिए मेहनत कर रही है और अस्पृश्यों का प्रतिनिधित्व मैं और मेरे सहयोगियों से अधिक काँग्रेस के पास जाने की ज्यादा संभावना है! इस बारे में मैं बस इतना ही कह सकता हूं कि गैरजिम्मेदार लोगों से जो कई जाली हकों की बात उछाली जाती है उन्हीं में से ये भी जाली हक हैं और जिनके नाम से ये जाली हक रखे जाते हैं, वे अस्पृश्य लोगों द्वारा बार-बार इनकार किए जाने के बावजूद फिर-फिर वही बातें आगे रखने की परले दर्जे की बदमाशी है। 


कुगन, अलमोडा से अस्पृश्य समाज संघ के अध्यक्ष द्वारा भेजा गया एक तार अभी-अभी मुझे प्राप्त हुआ है, जिसमें अस्पृश्य समाज को कांग्रेस के बारे में जो अविश्वास महसूस होता है, वह व्यक्त हो रहा है। मैंने अभी तक वह जगह नहीं देखी और न तार भेजने वाले से मेरी पहचान है। 


हालांकि उन्होंने लिखा है कि, काँग्रेस के कुछ लोगों के मन में अस्पृश्यों के बारे में सहानुभूति है लेकिन बहुजन अस्पृश्य समाज काँग्रेस के साथ नहीं है, यह बात बिल्कुल सही है। हालांकि इस मुद्दे पर चर्चा करने का भी मौका नहीं है। अब जिस मुद्दे पर बोलना तय हुआ है उसके बारे में यानी, माइनॉरिटी समिति की बैठक बेमियादी रूप से रद्द कर दी जानी चाहिए, इस महात्मा गांधी के प्रस्ताव का सर म. शफी की तरह मैं भी पूरी तरह विरोध करता हूं। इस महत्वपूर्ण मसले को बीच में ही छोड़कर किसी दूसरे मसले पर सोचा जाए यह बात मुझे पसंद नहीं है। पहली बात, कि एक और बार कोशिश कर अल्पसंख्यकों के इस माजरे को हमें आपस में ही सुलझा लेना चाहिए और सुलह कर लेनी चाहिए। और अगर यह असंभव लग रहा हो, तो ब्रिटिश सरकार पहले इस मसले को हल करने का कोई उपाय लागू करे और फिर आगे बढ़ा जाए। हालांकि, यह बात भी सही है कि किसी पराए देश के लोगों के हाथ में यह मसला सुलझाने के लिए दिया नहीं जाना चाहिए। क्योंकि, इस मामले में ब्रिटिश सरकार जितनी जिम्मेदारी किसी और अजनबी को महसूस नहीं होगी।


एक और बात की ओर मैं लोगों का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं कि अंग्रेज लोगों के हाथ से सत्ता की बागडोर लेकर, ब्रिटिश नौकरशाही के बजाय वरिष्ठ वर्ग हिंदी स्वराज्य वालों के हाथ में उसे सौंपने के राजनीतिक आंदोलन में अस्पृश्य समाज ने अब तक हिस्सा नहीं लिया है। अंग्रेज राज के बारे में राज्यकर्ताओं के खिलाफ अस्पृश्यों की कुछ शिकायतें हैं, लेकिन सिर्फ इतने भर के लिए राजनीतिक सत्ता की अदला-बदली होनी चाहिए, ऐसी अस्पृश्य लोगों की मांग नहीं है। सिर्फ राजनीतिक सत्ता की अदला-बदली के लिए वे ज्यादा उत्सुक नहीं हैं। हालांकि जो लोग इस बात के लिए आंदोलन छेड़े हुए हैं, उन्हें रोकना अगर सरकार के बस की बात नहीं हो तो, और उसके लिए अगर राजनीतिक सत्ता का विभाजन करना अनिवार्य हो जाए तो वह सत्ता मुसलमान अथवा हिंदू समाज के थोड़े लोगों के या विशिष्ट वर्ग के कब्जे में न चली जाए और उस सत्ता का सामान्य लोगों के और पददलित जातियों के बीच बंटवारा हो, इस बारे में सरकार को जागरुक रहना होगा। इसके लिए पहले से कुछ संरक्षणात्मक शर्तों की (सेफगार्डस् की) व्यवस्था होना अति आवश्यक है। इस नजरिए से देखा जाए तो इस प्रश्न को पहले हल किए बगैर तथा आगामी राज्य संविधान में हमारी स्थिति क्या होगी, इसका सही-सही पता चले बगैर उस संविधान को बनाने में हम दिलो-दिमाग से कैसे सहभागी हो सकते हैं?


संदर्भ बाबासाहेब डॉ.अंबेडकर संपूर्ण वाङ्मय खंड 38 पृष्ठ 262-65



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